मंदिर जी का परिचय

रेवाड़ी में भगवान महावीर मार्ग के निकट भैरू चौक में स्थित श्री 1008 मूर्ति पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर अत्यन्त प्राचीन अतिशयकारी प्रतिमाओं से सुशोभित जिनालय है। जिसमें श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान, श्री 1008 चन्द्रप्रभु भगवान एवं 1008 श्री आदिनाथ भगवान जी की अत्यन्त प्राचीन प्रतिमाएँ विराजमान है।
मंदिर जी निर्माण का एक वाक्य लगभग 18वीं सदी का है। क्षेत्र में जती जी श्री राजेन्द्र कीर्ति भट्टारक हुआ करते थे। जैन समाज के श्री झम्मनलाल जती जी के परम भक्त थे। एक बार झम्मनलाल जी की धर्मपत्नी की जीभ में बड़ा छेद हो गया था। वैद्यों के द्वारा इलाज में असफल होने के बाद अन्तः झम्मनलाल जी ने जती जी को अपनी इस समस्या का बताया। तब जती जी ने कहा कि मैं आपकी समस्या दूर कर दूँगा। जती जी ने धूनी करते हुए राख की तीन पुड़िया झम्मनलाल जी को दीं और कहा कि ये तीनों पुड़िया अपनी धर्मपत्नी को गर्म पानी के साथ दे देना। झम्मनलाल जी ने ऐसा ही किया और उनकी धर्मपत्नी को लगभग आधा आराम हो गया। कुछ समय बाद जती जी ने झम्मनलाल जी को बुलाकर कहा कि आप अपनी जमीन मन्दिर जी के लिए दान कर दो। झम्मनलाल जी ने कहा कि मैं अपने भाइयों से सलाह करके बताऊँगा। यह बात झम्मनलाल जी ने अपने भाई भगवानदास मुख्तार को बताई। लेकिन भगवानदास मुख्तार झम्मनलाल से कहते है कि तुम जतीजी के चक्करों में मत पड़ो। झम्मनलाल जती जी के पास आकर उन्हें अपने भाई के द्वारा कही गई सारी बातें बताते है। और कहते है कि मेरे भाई ने दान देने से मना कर दिया है। जती जी ने झम्मनलाल जी को उनकी धर्मपत्नी के लिए तीन पुड़िया और दीं और उसी प्रकार लेने के लिए कहा। झम्मनलाल जी की पत्नी को वह पुड़ियाँ खाते ही पहले वाली समस्या फिर से हो गई। भगवान दास जी को अपनी भूल का पछतावा हुआ। भगवान दास जी समझ गए कि जतीजी के चमत्कार के आगे इस जमीन की कोई कीमत नहीं है। यह जमीन जती जी को मन्दिर के लिए दान में ही दे दें। आपसी सहमति से सभी भाईयों ने अपनी जमीन बड़े मन्दिर जी के लिए दान में दे दी। उसके पश्चात् जती जी ने झम्मनलाल जी की धर्मपत्नी के लिए तीन और पुड़िया दीं, जिनके लेते ही जीभ पूरी तरह से ठीक हो गई।
1008 श्री मूर्ति पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर रेवाड़ी का एक अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है लेकिन प्राचीन मंदिर होने के कारण शिखर एवं दीवारें जीर्ण-शीर्ण हो गई थी। मंदिर जी के जीर्णोद्धार एवं नवीनीकरण के उद्देश्य से 25-26 मई, सन् 2012 में आचार्य 108 श्री विशदसागर जी महाराज के मंगल आशीर्वाद एवं प्रेरणा से मन्दिर जी की प्रतिमाओं का उत्थापन करा के मन्दिर के सामने वाली जमीन पर अस्थाई मन्दिर का रूप देकर प्रतिमाओं को विधिपूर्वक प्रतिष्ठाचार्य ब्र० जयकुमार 'निशान्त' जी के मार्ग निर्देशन में स्थापित कराया गया। जिसका शिलान्यास 20 नवम्बर, 2013 को बा०ब्र0 नितिन भैया (खुरई), स्थानीय विद्वान-पं० हेमचन्द्र जैन शास्त्री एवं पं० नीरज जैन शास्त्री के सहयोग से सम्पन्न हुआ। अब यह मन्दिर अत्यन्त सुन्दर, मनोहारी एवं विशाल रूप में बड़ा मन्दिर के वर्तमान कार्यकारिणी अध्यक्ष, कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों एवं सम्पूर्ण जैन समाज के सहयोग से नव-निर्मित हो गया है। नवीन वेदियों का निर्माण कर उन पर अत्यन्त सुन्दर स्वर्ण नक्काशी की गई है एवं तलघर में स्वाध्याय कक्ष बनाया गया है।
मंदिर जी का पंचकल्याणक महामहोत्सव एवं विश्वशांति महायज्ञ गणाचार्य 108 श्री विराग सागर जी महाराज के परम शिष्य, परम पूज्य आचार्य 108 श्री विशदसागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में 7 अप्रैल 2017 से 13 अप्रैल 2017 तक प्रतिष्ठाचार्य बा०ब्र० श्री जयकुमार जी 'निशान्त' के निर्देशन एवं सह-प्रतिष्ठाचार्य नितिन भैया (खुरई), पं० मनीष जैन शास्त्री (टीकमगढ़) के सहयोग से सम्पन्न हुआ है।
प्रतिमाओं का इतिहास
भगवान आदिनाथ जी की प्रतिमा का इतिहास - बड़े मन्दिर जी में विराजमान भगवान आदिनाथ जी की प्रतिमा अत्यन्त प्राचीन एवं अतिशयकारी है। इस प्रतिमा पर भगवान आदिनाथ जी का चिह्न नहीं है परंतु आद्य तीर्थंकर होने के कारण इस प्रतिमा को आदिनाथ भगवान जी की कहा जाने लगा। यह प्रतिमा रेवाड़ी की पुरानी तहसील की खुदाई के समय मिली थी, इस कारण यह सरकारी सम्पति कहलाई। उस समय रेवाड़ी तहसील जिला गुडगाँव में आती थी। अतः यह प्रतिमा जिला गुड़गाँव डी.सी. के दफ्तर में रख दी गई। यह वाक्य ब्रिटिश काल का था, उस समय डी.सी. कोई अंग्रेज था। उस डी.सी. के कई काम अटके हुए थे। उस डी.सी. का तबादला अन्यत्र हो गया था तथा किसी कारण से उसकी प्रमोशन भी रुकी हुई थी। रेवाड़ी जैन समाज ने बहुत प्रयास किया कि यह मूर्ति जैन समाज को मिल जाए लेकिन वे प्रतिमा प्राप्त करने में असफल रहे। जैन समाज के लोगों ने डी.सी. से कहा कि यह कोई साधारण प्रतिमा नहीं है यह तो बहुत ही अतिशयकारी जैन प्रतिमा है। यह बात सुनकर डी.सी. ने एक शर्त रखी कि अगर इस प्रतिमा में इतना ही अतिशय है तो मेरा तबादला रुकने के साथ-साथ मेरी पदोन्नति भी हो जाएगी तो यह प्रतिमा मैं आपको सौंप दूँगा। इस प्रतिमा का ही अतिशय था कि एक सप्ताह के अन्दर ही उस डी.सी. के तबादले का आदेश रुक गया तथा उसकी पदोन्नति भी हो गई। तब उस डी.सी. ने स्वीकार किया कि वास्तव में यह प्रतिमा अत्यन्त अतिशयकारी है। उसने अपनी शर्त के अनुसार वह प्रतिमा जैन समाज रेवाड़ी को सौंप दी और जैन समाज ने वहाँ से प्रतिमा लाकर शुद्धिपूर्वक प्रतिष्ठित कराके श्री बड़ा मन्दिर जी में स्थापित करवा दी। यह मन्दिर तीन चरणों में बना। पहले मंदिर जी में एक वेदी थी, श्री चन्द्रप्रभ भगवान जी की। बाद में श्री आदिनाथ जी की प्रतिमा आने से दो वेदी हो गई। वेदी सम संख्या में होने के दोष को दूर करने के लिए और तीसरी वेदी श्री चन्द्रप्रभ भगवान की बनाई गई।
भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा का इतिहास - महावीर भगवान जी की प्रतिमा लगभग 1200 वर्ष प्राचीन है जो एक गाँव के कुएँ से मिली थी। यह मूर्ति रेवाड़ी नगरी के समीप किसी गाँव के कुएँ पर लगी हुई थी। एक बार जगन्नाथ नामक श्रावक उस गाँव में किसी काम से गए थे, उनकी नजर इस प्रतिमा पर पड़ी। उन्होंने देखा की यह तो दिगम्बर जैन प्रतिमा है। तुरन्त ही उन्होंने मन में विचार किया कि इस प्रतिमा को किसी तरह यहाँ से लेकर जाना चाहिए। उन्होंने एक डकोत (शनि) का वेष बनाया तथा गाँव वालों से कहा कि यह शनि महाराज की प्रतिमा है। इसको यहाँ से हटाकर किसी को दान दे दो, नहीं तो तुम्हारे गाँव का विनाश हो जाएगा। गाँव वालों ने डर कर आपसी सहमति से वह प्रतिमा जगन्नाथ् जी को दे दी और उन्होंने प्रतिमा को उस गाँव से रेवाड़ी लाकर विधिपूर्वक बड़े मन्दिर जी में विराजमान कर दिया।
मंदिर जी की वेदिया
मूलनायक वेदी श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान - वेदी में श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान जी की मूल प्रतिमा के साथ, श्री 1008 चन्द्रप्रभु भगवान की विक्रम सम्वत-1137, श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान जी की विक्रम सम्वत- 1548, श्री 1008 चन्द्रप्रभु भगवान जी की विक्रम सम्वत-1548, श्री 1008 सुपार्श्वनाथ भगवान जी की भी विक्रम सम्वत-1548 की प्रतिमा के साथ अन्य प्रतिमाएँ विराजमान है।
वेदिनायक श्री 1008 आदिनाथ भगवान -वेदी में श्री 1008 आदिनाथ भगवान जी की सफेद पाषाण की मूल प्रतिमा के साथ श्री 1008 महावीर भगवान जी पुरातत्व प्रमाणित 10वीं शताब्दी की प्रतिमा, श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान जी की विक्रम सम्वत-1950, श्री 1008 शान्तिनाथ भगवान जी की विक्रम सम्वत-1621 की प्रतिमा के साथ अन्य जैन प्रतिमाएँ विराजमान है।
वेदिनायक श्री 1008 चन्द्रप्रभु भगवान -वेदी में मूलनायक श्री चन्द्रप्रभु भगवान जी के साथ, श्री पार्श्वनाथ भगवान, चौबीसी एवं अन्य जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ विराजित है।
भूगर्भ से प्राप्त प्रतिमा जी का इतिहास - काले पाषाण की यह प्रतिमा सन् 2013 के अन्त में बड़ा मन्दिर जी के जीर्णोद्धार के लिये की गई खुदाई के समय भूगर्भ से प्राप्त हुई थी। इस प्रतिमा का केवल एक हिस्सा ही भूमि से प्राप्त हुआ था। अन्य हिस्से को बहुत ढूंढा गया, लेकिन वह नहीं मिला। बाद में जयपुर के मूर्तिकारों की सहायता से प्रतिमा को पूरा किया गया। प्रतिमा अब मन्दिर जी के ऊपरी तल की वेदी पर विराजमान की गई है। जिसकी प्रतिष्ठा वीर नि.सं.- 2543, वैशाख कृष्ण- 1 (12 अप्रैल, 2017) को हुई है।
अतिशय की कथा
किसी जैन श्रावक की लड़की का विवाह नहीं हो रहा था। उसकी लड़की की आयु अधिक हो गई थी। वह बहुत परेशान हो चुका था। वह भगवान आदिनाथ जी की प्रतिमा के समक्ष नियम से प्रतिदिन जाप करता था। एक दिन स्वप्न में भगवान आदिनाथ जी के दर्शन हुए। उसने अपनी पीड़ा सपने में भगवान आदिनाथ जी को सुनाई। स्वप्न में ही भगवान ने संकेत दिया कि तुम अपनी लड़की के लिए लड़का देखो। सारा कार्य बिना रुकावट एवं सहजता से हो जाएगा। कुछ समय के पश्चात् उस व्यक्ति की लड़की का विवाह सहजता से सम्पन्न हो गया।
स्थानीय निवासी श्री नानकचन्द जी जैन के पिता श्री बनारसीदास जी जैन पंसारी प्रतिदिन अपनी दुकान बन्द करके रात्रि 10 बजे के बाद मन्दिर जाते थे। एक दिन मन्दिर जी में प्रवेश करते समय उन्हें पीछे से आवाज आई कि "आज तो आप आ गये हो, आगे से रात्रि 10 बजे के बाद मन्दिर जी में दर्शन करने मत आना"। उसके बाद से वे समय देखकर ही मंदिर जी में जाने लगे।
जैन समाज एवं सुविधाए
लगभग 200 जैन परिवारों का समाज होते हुए भी धर्मनगरी रेवाड़ी पर भगवान महावीर स्वामी एवं दिगम्बर संतो का आशीर्वाद एवं बुजुर्गों की विशेष कृपा रही है। जिसके फलस्वरूप यहाँ पर छह जैन मंदिर, सात जैन विद्यालय और लगभग दस अन्य जन उपयोगी संस्थाएँ कार्यरत है। जैन समाज द्वारा मंदिर जी का संचालन सुचारु रूप से होता है। मंदिर जी में प्रतिदिन दर्शन करने आने वाले श्रावको की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। जैन मंदिरों में दूर के क्षेत्रों से दर्शन करने आए यात्रियों के लिए रुकने की व्यवस्था भी उपलब्ध करवाई जाती है। सम्पर्क करके आने पर भोजन की व्यवस्था भी उपलब्ध करवाई जाती है। क्षेत्र में जैन साधु महाराज जी के आगमन पर त्यागी भवन में रुकने की व्यवस्था की जाती है।
क्षेत्र के बारे में
रेवाड़ी भारत के हरियाणा राज्य में स्थित है। यह शहर भारतीय राजमार्ग (NH-71B) के आसपास स्थित है और रेवाड़ी जिला का मुख्यालय भी है। रेवाड़ी क्षेत्र का इतिहास बहुत प्राचीन है और इसके आसपास कई प्राचीन स्मारक और ऐतिहासिक स्थल हैं। रेवाड़ी अपने आप में बहु आयामी प्रतिभाओ, महान कलाकारों, कवियों, साहित्यकारों, शूरवीरो, धार्मिक स्थलों, शैक्षणिक प्रतिष्ठानों, प्रकृतिं सौंदर्य से ओतप्रोत दक्षिणी हरियाणा का एक ऐसा स्थान है, जहाँ आकर मन को सुकून और पवित्रता का बोध होता है। प्राचीन महाभारत काल के दौरान, रेवत नामक एक राजा था, जिसकी पुत्री का नाम रेवती था। उसे सब रेवा कहकर बुलाते थे और उसके नाम पर शहर 'रेवा वाडी' की स्थापना की थी। खाने के हिसाब से यहाँ की रेवड़ियाँ बहुत मशहूर हैं। यहाँ पर भारत की सबसे पहली गौशाला सन् 1878 में बनाई गई थी जो कि राजा राव युधिष्ठिर यादव द्वारा बनाई गई थी। रेवाड़ी क्षेत्र ने आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यह शहर एक आधुनिक बाजार सेंटर भी है जो निकटवर्ती गांवों और नगरों को आवश्यक सामग्री और सेवाओं की पहुंच प्रदान करता है। इसके अलावा रेवाड़ी क्षेत्र के पास कई प्राकृतिक सौंदर्य स्थल भी हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। सम्पूर्ण रूप से रेवाड़ी क्षेत्र एक महत्वपूर्ण और विकासशील क्षेत्र है, जो सांस्कृतिक, आर्थिक, और पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
समिति
मंदिर जी के सुचारु रूप से संचालन के लिए मंदिर समिति का निर्माण किया गया है। समिति में कार्यरत सदस्य इस प्रकार है -
संरक्षक - - श्री रतनलाल जैन
प्रधान - श्री वीरेन्द्र कुमार जैन
उप प्रधान - श्री अभयकुमार जैन
सचिव - -श्री राहुल जैन
कोषाध्यक्ष - श्री सुरेश जैन बजाज
सदस्य - श्री लोकेश जैन