मंदिर जी का परिचय

श्री 1008 दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जो ‘पुण्योदय तीर्थ’ के नाम से विख्यात है हरियाणा राज्य में जिला हिसार से लगभग 25 किलोमीटर और दिल्ली से लगभग 110 कि०मी० दूर हांसी में स्थित है। पहले मंदिर परिसर में एक चैत्यालय की स्थापना की गई और पंचायती जैन मंदिर जी से कुछ प्राचीन प्रतिमाओं को यहाँ लाकर विराजमान किया गया ताकि क्षेत्र निर्माण में ऊर्जा का संचार हो सके। उपरांत इस अतिशय क्षेत्र का शिलान्यास 8 मार्च 1995 को आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज जी की परम शिष्या आर्यिका श्री 105 दृढमति माता जी एवं 17 आर्यिका व 108 बह्मचारिणी बहनों के सानिध्य में किया गया। आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज द्वारा श्री 1008 दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र को ‘पुण्योदय तीर्थ’ नाम दिया गया। अर्थात आपका पुण्य का उदय है जो यहाँ दर्शन के लिए आए हैं।
गर्भ ग्रह का निर्माण 2014 में पूर्ण हो गया था। लेकिन इंतजार हो रहा था कि कब मुनि श्री आए और उनके सानिध्य में मंदिर जी का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हो, मंदिर जी का पंचकल्याणक नवंबर 2017 में हुआ। मंदिर जी का पंचकल्याणक मुनि श्री प्रणम्य सागर जी, मुनिश्री चंद्र सागर जी, मुनि श्री वीर सागर जी मुनि श्री विशाल सागर जी एवं मुनि श्री धवल सागर जी पांच मुनिराज के सानिध्य में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन किया गया था। मंदिर जी के निर्माण के लिए भूमि देने का कार्य लाला बलवंत सिंह जैन जी व श्री श्रीपाल जैन जी द्वारा किया गया। मंदिर जी का क्षेत्रफल सात एकड़ भूमि पर फैला है। मंदिर जी के परिसर में खुला आँगन है जहाँ पर बड़े बड़े वृक्ष लगे हुए है साथ ही साथ आस पास में हरियाली व तरह तरह की फूल पौधे की क्यारियां बनी हुई है। मंदिर जी के बाहर प्रांगण में सफेद मार्बल से निर्मित 71 फीट ऊँचा मानस्तंभ मंदिर जी की भव्यता को ओर भी बढ़ाता है। मंदिर जी के गर्भगृह के बाहर 24 अर्ध चक्राकार आकार की सीढ़िया बनाई गई है, इन सीढ़ियों को चढ़ कर आप मंदिर जी के मुख्य हाल में प्रवेश करेंगे। मंदिर जी के मुख्य हॉल में प्रवेश करने पर एक अद्भुत शांति प्राप्त होती है जो आप भी अनुभव कर पाएंगे।
मंदिर जी के गर्भगृह में तीन वेदिया स्थापित है। मंदिर जी में मूलनायक प्रतिमा श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान जी सहित दो अन्य प्रतिमाएँ अष्ट धातु द्वारा निर्मित विराजमान है। मूल वेदी के बाई ओर दूसरी वेदी में श्री 1008 पार्श्वनाथ भगवान जी की चौबीसी मूल प्रतिमा के रूप में विराजमान है। यह प्रतिमा जी रानीला जी में विराजमान श्री 1008 आदिनाथ भगवन की प्रतिमा जैसी प्रतीति होती है अतः अत्यंत प्राचीन है। वेदी में कुल 13 प्रतिमाएँ विराजमान है जिन्हें पहले यहाँ पर ही चैत्यालय में विराजमान किया गया था। जिसमें से पाँच प्रतिमाएँ लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन है जो हांसी में असीगढ़ किले से प्राप्त हुई 57 प्रतिमाओं में से हैं। प्रतिमाओं की प्रगट होने की घटना अत्यंत रोचक एवं अतिशय पूर्ण है। 57 में से बाकी 52 प्रतिमाओं के दर्शन हांसी के पंचायती जैन मंदिर जी में होंगे जहाँ पर प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
मंदिर जी में स्थापित तीसरी वेदी में पंचबालयती भगवान जी की प्रतिमाएँ जिसमें नेमिनाथ भगवान जी, श्री वासुपूज्य भगवान जी, श्री पार्श्वनाथ भगवान जी, श्री मल्लिनाथ भगवान जी, श्री महावीर भगवान जी की प्रतिमाएँ विराजमान है जो अष्ट धातु से निर्मित है। सभी वेदियों में बहुत सुंदर सुवर्ण की चित्रकारी की गई है। जो देखने में बहुत ही मनमोहक लगती है। बड़ी संख्या में लोग आज इन चमत्कारी, अतिशययुक्त प्रतिमाओं के दर्शन कर मनोवांछित कामनाएँ पूर्ण करते हैं। मंदिर जी के परिसर में छुलक कुलभूषण जी जो बाद में जैन मुनि श्री धर्मसागर जी महाराज हुए, जिनकी चरण पादुका भी यहाँ पर विराजमान है। उनके बारे में बताया जाता है की उन्होंने प्रण लिया की असीगढ़ किले से प्राप्त हुई 57 प्रतिमाएँ जो सरकार के पुरातत्व विभाग के पास जब्त थी, जब तक वो प्रतिमाएँ जैन समाज को नहीं मिल जाती तब तक वह मीठे एवं नमक का त्याग करेंगे। लगभग 10 वर्ष तक प्रतिमाओं का जैन समाज को मिलने का संघर्ष जारी रहा। बाद में प्रतिमाओं के मिल जाने पर सब ने बड़े उत्साह एवं जोश से श्री दिगम्बरजैन पंचायती मंदिर जी में प्रतिमाओं की स्थापना की।
57 प्रतिमाओं की प्रगट होने की कहानी

यह बात 19 जनवरी 1982 की है, किले पर कुछ बच्चे गुल्ली डंडा खेल रहे थे, खेलते हुए एक बच्चे ने टोरा मारा तो गुल्ली हवा में उड़ते हुए एक खाई में जा गिरी। जो बच्चा खाई के किनारे खड़ा था वह बच्चा गुल्ली निकलने के लिए खाई में उत्तर गया और उसने देखा कि उसकी गुल्ली किसी एक टोकरे जैसी चीज पर पड़ी है जो मिट्टी में दबा है। उसने अपने सभी साथियों को बुलाया और सभी साथी हाथों से मिट्टी हटाने लगे, तो टोकरे का मुँह नजर आया। वह टोकरा बहुत बड़ा कलश था और मिट्टी में धसा हुआ था। बच्चों ने अपने घरवालों को बुलाकर घटना का व्यख्यान किया। लोगो ने लोहे की फॉली से कलश पर लगे ताले को तोड़ दिया, जब कलश का मुँह खोला तो देखा इस में बहुत सारी प्रतिमाएँ हैं।
कलश में कुल 57 प्रतिमाएँ प्राप्त हुई जिसमें 40 बड़े आकार की व 17 छोटे आकार की प्रतिमाएँ थी जिसमें से 19 प्रतिमाएँ भगवान पार्श्वनाथ जी की अति सुन्दर एवं मनोहारी हैं। प्रतिमाओं को देख उनके मन में लालसा उत्पन हुई की ये बहुत ही प्राचीन प्रतिमाएँ है और बहुत महंगी होगी। यह सोचकर वह सारी प्रतिमाएँ अपने घर ले जाते हैं। अगले ही दिन प्रतिमाओं के बंटवारे को लेकर उनकी लड़ाई हो जाती है। यह देख वहाँ पर पुलिस आ जाती है और पुलिस वह सारी प्रतिमाएँ अपने साथ पुलिस स्टेशन ले जाती है। जब प्रतिमाएँ पुलिस स्टेशन पहुँची तब जाकर जैन समाज को पता चला कि किले से जैन प्रतिमाएँ निकली है। तभी जैन समाज एकत्रित हुआ। जैन समाज के आग्रह पर पुलिस द्वारा सभी प्रतिमाओं को एक दिन के लिए पंचायती मंदिर जी में विराजमान किया गया। जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से श्रावक एकत्रित हुए। एक दिन बाद ही यहाँ से सारी प्रतिमाएँ पुरातत्व विभाग के पास चली गई। कई प्रयासों के बाद भी प्रतिमाएँ जैन समाज को नहीं मिलपाई।
10 साल तक इन प्रतिमाओं को सरकार द्वारा संग्रहित करके रखा गया। लेकिन जैन समाज द्वारा व स्थानीय दिगम्बर जैन के अथक प्रयास एवं जैन श्रमण संस्कृति के उन्नायक दिगम्बर जैन आचार्य परम पूज्य श्री 108 धर्म भूषण जी महाराज, पूर्व में छुल्लक श्री कुलभूषण जी महाराज एवं अन्य संतों के लगभग 10 साल के प्रयत्न के बाद प्रतिमाओं को आखिरकार सरकार द्वारा वापिस जैन समाज को लौटा दिया गया। छुल्लक कुलभूषण जी जो बाद में जैन मुनि बन गए उनका भाव था कि जैन समाज को यह सभी प्रतिमाएँ वापस मिल जाए। उन्होंने कहा जब तक यह प्रतिमाएँ जैन समाज को नहीं मिल जाती। तब तक वह मीठे और नमक का त्याग करेंगे। 10 साल की कठिन तपस्या और प्रयास के बाद दिसंबर 1991 में सभी प्रतिमाएँ जैन समाज को सौंप दी गई। जिसमें से पाँच प्रतिमाएँ पुण्योदय तीर्थ हांसी में एवं बाकी सभी प्रतिमाएँ पंचायती दिगम्बरजैन मंदिर में सुरक्षित रूप से विराजमान किया गया है।
प्रतिमाओं का चोरी हो जाना
इतने संघर्षो के बाद प्रतिमाएँ जैन समाज को मिल गयी, प्रतिमाओं को हांसी के पंचायती मंदिर जी में स्थापित किया गया। मंदिर जी बहुत प्राचीन बना होने के कारण यहाँ सुरक्षा को लेकर कोई उचित प्रबंध नहीं थे। समय के साथ अन्य लोगों में चर्चा होने लगी की क्षेत्र पर विराजमान प्रत्येक प्रतिमा एक करोड़ की है। अतः 57 प्रतिमाएँ 57 करोड़ की। यह बात कुछ लुटेरों को पता चली और उन्होंने मंदिर जी से इन प्रतिमाओं को चोरी करने का सोचा। सन् 2004 में इस घटना को अंजाम दिया गया। लुटेरों ने प्रतिमाओं को चुराने के लिए मंदिर जी की छत तोड़कर मंदिर में प्रवेश कर सारी प्रतिमाओं को चुरा लिया। यह सुचना जब एस.पी. सौरभ सिंह जी तक पहुँची जो उस समय के एस.पी. होते थे। उन्होंने इस घटना के बारे में तहकीकात की और एक महीने के अंदर ही चोरों का पता लगाकर प्रतिमाओं को जब्त किया। चोरों द्वारा कुछ प्रतिमाएँ हिसार के महावीर नामक पानी की टंकी में एवं कुछ प्रतिमाएँ भिवानी के पुलिस स्टेशन के सामने चाय वाले की दुकान में छिपा दी थी। इस तरह जैन समाज को वापिस प्रतिमाएँ मिली। प्रतिमाओं के मिलने के उपरांत ही पुण्योदय तीर्थ का निर्माण कार्य शुरू हो गया था जहाँ पर पाँच प्रतिमाओं को विराजमान किया गया।
दिव्य संकेत
एक वाक्य अनुसार बताया जाता है एक व्यक्ति रोजाना किले पर टहलने के लिए जाया करता था। उस व्यक्ति को कई बार काले रंग का सर्प दिखाई देता था। जो लगभग 5 फूट लम्बा और काफी मोटा था। वह सर्प एक जगह से निकलता और उस स्थान पर जाकर अदृश्य हो जाता जहाँ से 19 जनवरी 1982 को प्रतिमाएँ मिली थी। ऐसी घटना उनके साथ कई बार हो चुकी थी। लेकिन उन्होंने कभी इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। बाद में प्रतिमाओं के प्राप्त होने पर उन्हें पता चला की यह एक संकेत था जो कि खुद भगवान द्वारा सर्प के माध्यम से दिया जा रहा था।
समाज एवं सुविधाएं

हांसी नगर में लगभग 60 जैन परिवारों का समाज है जो प्रतिदिन मंदिर जी में दर्शन करने आते है। मंदिर जी में एक त्यागी वृति आश्रम का भी निर्माण किया गया है। जिसमें 2 प्रतिमाधारी, 3 प्रतिमाधारी श्रावको के लिए उचित ठहरने की व्यवस्था है। मंदिर जी के परिसर में बाहर से आने वाले यात्रियों के विश्राम हेतु 10 ए.सी. कमरे व 12 नॉन ए.सी. कमरे है। यहाँ पर एक कैंटीन की भी व्यवस्था बनी हुई है। यदि आप मंदिर जी आने से पहले अपने आने की सुचना पहले दे, तो भोजन की व्यवस्था भी यहाँ पर की जाती है।
हांसी क्षेत्र के बारे में
हांसी का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। हांसी किले के अंदर तलवार बनाने का बहुत बड़ा कारखाना हुआ करता था। यहाँ की बनी हुई तलवारे पूरे इलाके में मशहूर थी। फारसी में तलवार को असि बोलते हैं। इसलिए इसका नाम असीगढ़ पड़ गया। जो बाद में बिगड़ते- बिगड़ते हांसी रह गया। तोमर वंशीय शासकों ने यहाँ 1153 ई. तक राज किया। बाद में इतिहास प्रसिद्ध सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज शाकुम्भरी के चौहान नरेश विसलदेव ने हांसी क्षेत्र जीतकर राज किया। चौहान काल में जैन धर्म यहाँ का राज धर्म बना। उस काल खण्ड में हांसी में भगवान पार्श्वनाथ जी के साथ अन्य भव्य जैन मंदिर थे। सन् 1893 ई. में गांव मसुदपुर में अंगूठी के आकार के तांबे के सिक्के मिले थे जो मोहम्मदशाह व गयासुद्दीन के काल के थे। हांसी से राष्ट्रीय राजमार्ग 9 गुज़रता है, जो इसे पूर्व में रोहतक व दिल्ली और दूसरी ओर हिसार, फतेहाबाद व सिरसा से जोड़ता है। हांसी से राष्ट्रीय राजमार्ग 148बी बरवाला, टोहाना, जाखल, बुढलाडा, मानसा, भीखी व बठिंडा से जोड़ता है।
समिति
''1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र समिति'' द्वारा मंदिर जी के सभी कार्य को सफलतापूर्वक पूर्ण किया जाता है। समिति के सदस्य इस प्रकार है -
प्रधान - श्री विजय जैन जी
सचिव - श्री सुभाष जैन जी
कोषाध्यक्ष - श्री विनोद जैन जी
सदस्य - राजेश जैन जी
सदस्य - निखिल जैन जी